आयुर्वेद
धर्म और आयुर्वेद के रहस्य... अमृतम पत्रिका, ग्वालियर मप्र से साभार....
आज का धर्म सब कुछ पा लेने की लालसा है। मूल धर्म है- !!रक्षति देह:!! अपने शरीर की रोगों से रक्षा करना। समस्त झगड़े की जड़ धर्म है। प्राचीनकाल से मानव को मत, सिद्धान्त, विश्वास बेचा गया है। ये सब झूठे हैं। आज दुनिया में ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो व्यक्ति का खुद से साक्षात्कार करा सके। शान्ति दे सके। लगभग समस्त धर्म डराने के लिए बने हैं। धर्म कहता है, पहले स्वयं को समझो, जानो-पहचानो। मानव मस्तिष्क का सेतु शिवलिंग है। यह मनुष्य का प्रतीक है। शिव सहिंता के अनुसार महादेव का प्रतीक चिन्ह शिवलिंग मानव मस्तिष्क का ही दूसरा रूप है। लोगों की भूल है कि भगवान मन्दिर में हैं। हम पत्थर को भगवान मानकर खुद पत्थर बनते चले जाते हैं। अपने को जानना, सकारात्मक विचार और मन को शांति सबसे बड़ी पूजा है। धर्म का अर्थ है- आत्मा में शान्ति धारण करना। एकनिष्ठ भाव से अपनी नाभि पर ध्यान लगाना।
कृष्णभक्त मीरा बाई ने लिखा कि- घूंघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे।
यह किस घूंघट के बारे में बता रही है। यह मंदिर, बाजार, चर्च, चारों धाम आदि तीर्थो पर तो मिलेगा नहीं। दरअसल यह आंखों का पर्दा है, जब तक यह नहीं हटेगा सब भटकते रहेंगे। एक सूफी भजन सभी ने सुना होगा कि- जलवा-ए-हुस्न दिखा जाओ तो कुछ बात बने, मेरी आंखों में समा जाओ, तो कोई बात बने। आपकी शक्ल नज़र आती है धुंधली धुंधली, पर्दा नजरों से हटा जाओ तो कुछ बात बने। सत्यम शिवम सुन्दरम…. सत्य को जानना सबसे बड़ा धर्म है, जो जीवन में सत्य का अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा है। उसकी जिंदगी चिंताओं और अशांतियों से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। जीवन में जहां सत्य है, वही सुंदरता है और शिव का वास भी यही है। धर्म-धन के फेर में सब गुमराह हो रहे हैं।ईनके कारण प्राणी दिन-प्रतिदिन विकृत से विकृत होता जा रहा है, उसकी संस्कृति और संस्कार नष्ट हो रहे हैं, उसके पास समृद्धि की शक्ति तो बढ़ रही है लेकिन शांति विलीन हो रही है। बाहरी सम्पदा में वृद्धि हो रही है किंतु भीतर की दरिद्रता भी बढ़ती जा रही है। आज दुनिया में मानसिक अशांति की वजह से 58 फीसदी लोग अवसादग्रस्त हैं। अगर शास्त्रों की संगत करें, तो समझ आएगा कि- सबसे बड़ा धर्म है… देह की सुरक्षा। जिसने शरीर को साध लिया वही सच्चा साधक है, वही धार्मिक है। एक छोटी सी बात समझने की है कि हम किसी से कोई वस्तु लेते हैं या कोई विश्वास छोड़ जाता है, तो हमारा फर्ज है हम उसे वैसे ही लौटाएं। हमारा जन्म होता है। प्रकृति हमें हर प्रकार से रोगरहित, निश्छलता तथा सम्पूर्णता के साथ भेजती है और हम मरते समय हजारों रोग-विकार लेकर वापस जाते हैं।
जानिये आयुर्वेदिक दोषों के बारें में … Learn about Ayurvedic Doshas “ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया” “आचार्य महाप्रज्ञ” ने खोजा कि हम संसार में विकार रहित आते हैं और विकार से भरकर अपना विनाश कर लेते हैं । प्राणी में अपने प्रति, अपने दोषों के प्रति जागरूकता का कोई भाव नहीं है । व्यक्ति हमेशा मूर्च्छा में जीता है, इस लापरवाही के कारण तन में त्रिदोष (वात,पित्त,कफ) विषम हो जाते हैं। जाने क्या है- वात-पित्त-,कफ यानि त्रिदोष…. अमृतम आयुर्वेद में कफ,पित्त,वायु की विषमता को त्रिदोष कहते हैं । वर्तमान में जीना त्रिदोष से मुक्त होने हेतु आचार्यों ने निर्देश दिया है कि वर्तमान में जीने का अभ्यास करना चाहिए । यह वही व्यक्ति जी सकता है, जो अपने दोषों के प्रति जागरूक होता है। जागरूक वही रहेगा, जो खुद को जान पायेगा। वर्तमान विज्ञान मानता है कि त्रिदोष, शारीरिक दोषों से रहित तन-मन में जागरूकता का भाव उत्पन्न होता है । जागरूकता की सबसे बाधा है–मूर्च्छा। “उपाध्याय मेघविजय” ने इसका शरीरशास्त्रीय कारण बताते हुए लिखा है —- रक्ताधिकयेन पित्तेन मोहप्राकृतयो खिला:। दर्शनावर्णम रक्त कफ सांकरयसम्भवम ।। अर्थात जब रक्त में दोष आता है,रक्त की अधिकता औऱ पित्त दोनों मिल जाते हैं, तब मोह की सारी प्रकृतियाँ प्रकट होने लगती हैं। ये मुर्च्छाएँ, तब सामने आती हैं जब पित्त का प्रकोप औऱ रक्त की अधिकता होती है । मोह-माया की मलिनता… मोह की जितनी प्रकृतियां हैं, उतनी ही मुर्च्छाएँ हैं । जितनी वृत्तियां हैं, उतनी ही संज्ञाएँ और आवेग हैं । शरीर मनोविज्ञान ने चौदह मौलिक वृत्तियां मानी हैं । “मोह–कर्म” की 28 प्रकृतियां हैं । “पंतजलि” ने 5 वृत्तियां बतलायी हैं। दस संज्ञाएँ होती हैं। उन सबमें नामों में भेद हो सकता है, पर मूल प्रकृति सबकी एक है।
- विकारों की वृत्तियां…**
अमृतम आयुर्वेद के वेदाचार्य बताते हैं— 1- पित्त की वृद्धि से प्राणी मूर्च्छित होता हैं— 2- वात-वृद्धि से विवेक लुप्त होता है — 3- कफ वृद्धि संज्ञा को सुप्त करता है । हमारी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम जानते सब हैं, पर प्रयोग,अभ्यास करते कुछ नहीं । अभ्यास पहली आवश्यकता है । दूसरी बात है —–रुक गए,तो कुछ नहीं–** दृढ़ निश्चय-पक्का इरादा! जरूरी है— "राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त” ने अपने संस्मरणों में लिखा है— मैंने साहित्य रचना आरम्भ की। मेरा निश्चय,दृढ़ सकंल्प था कि मैं साहित्यकार बनूंगा,पर मेरी कविताएं कोई छापने को राजी न हुआ । मैंने 10 वर्षों में केवल ₹700 रुपये कमाए। खेती-बाड़ी,मजदूरी से घर खर्च चलाया, लेकिन “रचनाएं“ लिखता रहा और एक दिन मेरा नाम साहित्यकारों की सूची में आ गया। में खुद भी कोई लेखक नहीं हूँ। केवल प्रयास, अभ्यास, प्रवास और अन्तर्मन का आभास के सहारे यह कठोर नियम बनाया कि रोज कोई भी एक किताब पढ़कर उसके बारे में 5 से 7 पेज रजिस्टर में लिखना। इसी से लेखनी में दिनोंदिन सुधार होता गया। आज अमृतम पत्रिका के 4000 से ज्यादा लेख गूगल पर उपलब्ध हैं। कहते हैं कि- मान लो तो हार है, ठान ले तो जीत है। हमारा कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। जबवप व्यस्त रहेंगे, तो मस्त रहेंगे। अच्छा मूड, शांत मन एवं मस्ती सबसे बड़ा धर्म है। हम कुकर्मों से दुर् रहें, तो यह भी एक धर्म ही है।
श्री मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी जीवन कथा में लिखा है-पल-प्रतिपल संघर्ष की खोज करो, रोज करो। अभ्यास और दृढ़ निश्चय से मूर्च्छा टूटकर जागरूकता बढ़ जाती है। भगवान महावीर ने कहा… इसी से “**जिओ और जीने” **का सूत्र उपलब्ध होता है । अमृतम जीवन का मन्त्र है-
- बीती ताहिं बिसार दे, आगे की सुधि लेह ।**
जो कोई भी पुराना भूलकर, वर्तमान में जीना प्रारम्भ कर देता है, वह अतीत के पाप की चादर धो देता है तथा
- ज्यों की त्यों धरदीन्ही चदरिया***‘ !
“कबीर” की इस उक्ति को सार्थक कर देता है ।
- स्वास्थ्य वर्द्धक सलाह**
स्वस्थ्य रहने का दूसरा उपाय यह है कि ()- मन की चंचलता को कम करें ()- स्थिरता को बढ़ायें । ()- वात,पित्त,कफ को सन्तुलित रखते हुए, त्रिदोष के प्रकोप को कम करें। आयुर्वेद के नियमानुसार देह में त्रिदोष के प्रकोपित होने से अनेक उदर रोग पनपने लगते हैं। अतः त्रिदोष की चिकित्सा जरूरी है।
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“अमृतम आयुर्वेद के आचार्यों” ने बताया कि रोग **मन द्वारा मस्तिष्क** में औऱ **मस्तिष्क से तन **में प्रवेश करते हैं। मन के दरवाजों के खुला रखना दुःख का कारण है औऱ उन्हें बन्द कर देना सुख का साधन है। वेदान्त में भी कहा गया है कि स्वस्थ शरीर ही संसार का सुख औऱ मोक्ष का हेतु है। विज्ञान के विचार आज के वैज्ञानिकों की माने, तो हमारी सारी बीमारी-वृत्तियों का कारण बतलातें हैं—- @ग्रंथियों का स्राव । @जैसी सोच-वैसी लोच । द्वेष-दुर्भावना, जलन आदि कुंठित विचारों से रस-रक्त नाड़ियां कड़क होकर शरीर की अवयवों) व कोशिकाओं को शिथिल कर देती है। अच्छी सोच का प्रभाव अनेकों दुष्प्रभाव मिटाकर अभाव दूर करने में सहायक है। पॉजिटिव सोच से तन में लोच आने लगती है। भाव पूर्ण विचार तथा हमारा शुद्ध चरित्र ही सबसे बड़ा मित्र है, जो तन को इत्र की तरह महकाता है। सदेव स्वस्थ्य रहने के लिए अमृतम फार्मास्युटिकल्स ग्वालियर म.प्र. द्वारा निर्मित 100% शुद्ध हर्बल ओषधियों का नियमित सेवन करें अमृतम उत्पादों की जानकारी हेतु लॉगिन करें- http://amrutam.co.in/ बहुत जरूरी बात- यह है कि सदैव स्वस्थ्य-तन्दरुस्त रहने के लिए “पित्त के प्रकोप” से बचें। यही बीमारी का बहुत बड़े वजह है। के बारे में एक दुर्लभ जानकारी अमृतम पत्रिका, गूगल, विकिपीडिया पर मिलेगी। पित्त के बिगड़ने से अनेकों असाध्य व खतरनाक रोग होते हैं। आप सरल शब्दों में समझ सकेंगे ।
आयुर्वेद आयुयागु वेद अर्थात आयुयागु ज्ञान खः। गु शास्त्र नं आयु यागु ज्ञान बी, व हे शास्त्र आयुर्वेद खः। म्ह, इन्द्रिय सत्व, व आत्मा यागु संयोगयु नां आयु खः। प्राण नं युक्त म्हयात जीवित धाइ। आयु और शरीर का संबंध शाश्वत है। आयुर्वेद में इस सम्बन्ध में विचार किया जाता है। फलस्वरुप वह भी शाश्वत है। जिस विद्या के द्वारा आयु के सम्बन्ध में सर्वप्रकार के ज्ञातव्य तथ्यों का ज्ञान हो सके या जिस का अनुसरण करते हुए दीर्घ आशुष्य की प्राप्ति हो सके उस तंत्र को आयुर्वेद कहते हैं, आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है, इस आयुर्वेद में आयु के हित (पथ्य, आहार, विहार) अहित (हानिकर, आहार, विहार) रोग का निदान और व्याधियों की चिकित्सा कही गई है। हित आहार, सेवन एवं अहित आहार, त्याग करने से मनुष्य पूर्ण रुप से स्वस्थ रह सकता है। स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के चरम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। पुरुषार्थ चतुष्टयं की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है अतः उसकी सुरक्षा पर विशेष बल देते हुए आयुर्वेद कहता है कि धर्म अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है। सम्पूर्ण कार्यों विशेष रुप से शरीर की रक्षा करना चाहिए।
आयुर्वेदयु न्ह्यथनेज्या व विकास
[सम्पादन]आयुर्वेद के इतिहास पर यदि अवलोकन किया जाय तो इसकी उत्पत्ति महर्षि देवता ब्रह्मा जी द्वारा माना गया है, जिन्होंने ब्रह्मसंहिता की रचना की थी । कहा जाता है कि ब्रह्मसंहिता में दस लाख श्लोक तथा एक हजार अघ्याय थे, लेकिन आधुनिक काल में यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है ।
आयुर्वेद के ज्ञान के आदि श्रोत वेद मानें जाते हैं । यद्यपि आयुर्वेद का वर्णन सभी चारों वेदों में किया गया है, लेकिन अथर्ववेद से अधिक साम्यता होंनें के कारण महर्षि सुश्रुत नें उपांग और महर्षि वाग्भट्ट नें उपवेद बताया है । महर्षि चरक नें भी अथर्ववेद से सबसे अधिक नजदीकी विवरण मिलनें के कारण आयुर्वेद को इसी वेद से जोडा है ।
इसी कडी में, ऋगवेद में आयुर्वेद को उपवेद की संज्ञा दी गयी है । महाभारत में भी आयुर्वेद को उपवेद कहा गया है । पुराणों में भी वर्णन प्राप्त है । बृम्हवैवर्तपुराण में आयुर्वेद को पांचवां वेद कहा गया है। वास्तव में किसी भी वैदिक साहित्य में आयुर्वेद शब्द का वर्णन नहीं मिलता, फिर भी महर्षि पणनी द्वारा रचित ग्रंथ अष्टाध्यायी में आयुर्वेद शब्द प्राप्त होता है।
भारतीय चिकित्सा विज्ञान, जिसे आयुर्वेद कहते हैं, का सम्पूर्ण वर्णन प्रमुख रूप से चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में किया गया है। अन्य संहिताओं यथा काश्यप संहिता, हरीत संहिता, में इसका वर्णन किया गया है, लेकिन ये सम्पूर्ण नहीं हैं। अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, माधव निदान इत्यादि ग्रंथों का सृजन चरक और सुश्रुत को आधार बनाकर रचित की गयीं हैं। समय के परिवर्तन के साथ साथ निदानात्मक और चिकित्सकीय अनुभवों को लेखकों नें अपने अपने दृष्टिकोणों और विचारों को अनुकूल समझ कर संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध किया ।
आयुर्वेद का उद्देश्य
[सम्पादन]संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो दुःखी होना चाहता हो। सुख की चाह प्रत्येक व्यक्ति की होती है, परन्तु सुखी जीवन उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। स्वस्थ और सुखी रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर में कोई विकार न हो और यदि विकार हो जाए तो उसे शीघ्र दूर कर दिया जाये। आयुर्वेद का मुख्य लक्ष्य व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी हो जाने पर उसके विकार का प्रशमन करना है। ऋषि जानते थे कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ जीवन से है इसीलिए उन्होंने आत्मा के शुद्धिकरण के साथ शरीर की शुद्धि व स्वास्थ्य पर भी विशेष बल दिया है।
आयुर्वेद अवतरण
[सम्पादन]आयुर्वेद के अवतरण की कई गाथायें हैं :
चरक संहिता के अनुसार ब्रम्हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्विनी कुमारों को दिया, अश्वनी कुमारों नें यह ज्ञान इन्द्र को दिया, इन्द्र नें यह ज्ञान भारदृवाज को दिया, भारदृवाज नें यह ज्ञान आत्रेय पुर्नवसु को दिया, आत्रेय पुर्नवसु नें यह ज्ञान अग्नि वेश, जतूकर्ण, भेल, पराशर, हरीत, क्षारपाणि को दिया /
सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रम्हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्षप्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्वनीं कुमार को दिया, अश्वनी कुमार से यह ज्ञान धन्वन्तरि को दिया, धन्वन्तरि नें यह ज्ञान औपधेनव और वैतरण और औरभ और पौष्कलावत और करवीर्य और गोपुर रक्षित और सुश्रुत को दिया ।
सृष्टि के प्रणेता ब्रह्मा द्वारा एक लाख सूत्रों में आयुर्वेद का वर्णन किया गया और इस ज्ञान को दक्ष प्रजापति द्वारा ग्रहण किया गया तत्पश्चात् दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान सूर्यपुत्र अश्विन कुमारों को और अश्विन कुमारों से स्वर्गाधिपति इन्द्र को प्राप्त हुआ। आयुर्वेद के इतिहास से यह ज्ञात होता है कि इन्द्र के द्वारा यह ज्ञान पुनर्वसु आत्रेय को यह प्राप्त हुआ। शल्य शास्त्र के रुप में यह ज्ञान आदि धन्वन्तरि को प्राप्त हुआ। और स्त्री एवं बाल चिकित्सा के रुप में यह ज्ञान इन्द्र से महर्षि कश्यप को दिया गया। उपरोक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि भारत में प्रारंभ से ही चिकित्सा ज्ञान, काय चिकित्सा, शल्यचिकित्सा, स्त्री एवं बालरोग चिकित्सा रुप में विख्यात हुआ था। उपरोक्त इस विशेष कथन से यह बात भी प्रमाणित होती है कि चिकित्सा कार्य को करने के लिए आज की राज आज्ञा के अनुरुप चिकित्सा कार्य करने के लिए स्वर्गाधिपति इन्द्र से अनुमति प्राप्त करनी आवश्यक होती थी।
आयुर्वेदयु सिद्धान्त=
[सम्पादन]थुकिगु सिद्धान्त थ्व कथलं दु
- -त्रिदोष
- -त्रिदोषोंयु छगु छगु यु ५गु ५गु भेद
- -सप्त धातुयें
- -मल
- -ओज
- -अग्नि
- -प्रकृति इत्यादि इत्यादि
त्रिदोष
[सम्पादन]मुख्तया यह तीन होते हैं जिन्हें वात, पित्त और कफ कहते हैं / ये एकल दोष कहे जाते हैं /
जब वात और पित्त अथवा पित्त और कफ अथवा वात और कफ ये दो दोष मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को द्विदोषज कहते हैं /
जब वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष एक साथ मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को त्रिदोषज या सन्निपातज कहते हैं /
त्रिदोषों के प्रत्येक के पांच पांच भेद
[सम्पादन]हरेक दोष के पांच भेद आयुर्वेद के मनीषियों नें निर्धारित किये हैं /
वात दोष के पांच भेद (1) समान वात (2) व्यान वात (3) उदान वात (4) प्राण वात (5) अपान वात हैं / वात दोष को ‘’ वायु दोष ‘’ भी कहते हैं /
पित्त दोष के पांच भेद होते हैं / 1- पाचक पित्त 2- रंजक पित्त 3- भ्राजक पित्त 4- लोचक पित्त 5- साधक पित्त
इसी प्रकार कफ दोष के पांच भेद होते हैं / 1- श्लेष्मन कफ 2- स्नेहन कफ 3- रसन कफ 4- अवलम्बन कफ 5- क्लेदन कफ
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ वातादि दोषों के भेदों को फिजियोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज के समकक्ष मानते हें / कुछ अन्य विदृवान इसे असामान्य एनाबालिजम की तरह से समझते हैं /
सप्त धातु
[सम्पादन]आयुर्वेद के मौलिक सिदधान्तों में सप्त धातुओं का बहुत महत्व है। इनसे शरीर का धारण होता है, इसी कारण से धातु कहा जाता हैं। ये संख्या में सात होती हैं-
- 1- रस धातु
- 2- रक्त धातु
- 3- मांस धातु
- 4- मेद धातु
- 5- अस्थि धातु
- 6- मज्जा धातु
- 7- शुक्र धातु
सप्त धातुयें वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं। जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं।
आधुनिक आयुर्वेदज्ञ सप्त धातुओं को 'पैथोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज' के समतुल्य मानते हैं।
मल
[सम्पादन]मल तीन प्रकार के होतें हैं / 1- पुरीष 2- मूत्र 3- स्वेद
आयुर्वेद में नयी खोजें
[सम्पादन]आयुर्वेद लगभग, 5000 वर्ष पुराना चिकित्सा विज्ञान है. इसे भारतवर्ष के विद्वानों नें भारत की जलवायु, भौगालिक परिस्थितियों,भारतीय दर्शन, भारतीय ज्ञान-विज्ञान के द्ष्टकोण को घ्यान में रखते हुये विकसित किया.
वतर्मान में स्वतंत्रता के पश्चात आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान नें बहुत प्रगति की है.
इलेक्ट्रोत्रिदोषग्राम (ई.टी.जी.)-नाडी-विज्ञान का आधुनिक स्वरूप-आयुर्वेद के सिद्धान्तों की साक्ष्य आधारित प्रस्तुति
[सम्पादन]सम्पूर्ण आयुर्वेद त्रिदोष के सिद्धान्तों पर आधरित है. त्रिदोष सिद़धान्त यथा वात, पित्त, कफ तीन दोष शरीर में रोग पैदा करते हैं. इन दोषों का ज्ञान करनें का एकमात्र उपाय नाडी परीक्षण है, जिसे प्राप्त करना बहुत आसान कार्य नही है / नाडी परीक्षण के परिणामों को देखा नहीं जा सकता है कि शरीर में प्रत्येक दोष का कितना असर है.
एक भारतीय, कानपुर शहर, उत्तर प्रदेश राज्य निवासी, आयुर्वेदिक चिकित्सक डा0 देश बन्धु बाजपेयी ने ऐसी तकनीक का विकास किया है , जिससे आयुर्वेद के मौलिक सिद़धांतों का शरीर में कितना प्रभाव और असर है, यह सब ज्ञात किया जा सकता है.
ई0टी0जी0 तकनीक से आयुर्वेद के निदानात्मक दृष्टिकोणों को निम्न स्वरूपों में प्राप्त करते हैं.
- 1-त्रिदोष यथा वात,पित्त,कफ का ज्ञान
- 2-त्रिदोषों के प्रत्येक के पांच पांच भेदों का ज्ञान,
- 3-सप्त धातुओं का आंकलन, दोष आधारित सप्तधातुयें
- 4-मलों का आंकलन यथा पुरीष, मूत्र, स्वेद
- 5-अग्नि बल, ओज, सम्पूर्ण ओज आदि का आंकलन
ई0टी0जी0 मशीन, कम्प्यूटर साफ़टवेयर की मदद से आयुर्वेद के मौलिक सिदधान्तों का आंकलन करते हैं. इस तकनीक की मदद लेकर आयुर्वेद के विकास की असीम सम्भावनायें हैं.
सन्दर्भ ग्रंथ
[सम्पादन]स्वयादिसं
[सम्पादन]पिनेयागु स्वापूतः
[सम्पादन]- :आयुर्वेद,पर्यायी व पुरक औषध पद्धती --Indian Alternative Medicine
- इलेक्ट्रोत्रिदोषग्राफी तकनीक [१]
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